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शनिवार, 26 नवंबर 2011

साइरियस से साइबेरिया तक !

दोनों तीन नेत्री थे .
दसलोफीन अकेली रह गयी थी .वह कदफनेडरीस को जाते देख रही थी.

वह जिन बूतों के समीप खड़ी थी उनके बीच एक शिला पर एक नक्शा बना हुआ था जिसमेँ भूमध्यसागरीय क्षेत्र व साइबेरियाई क्षेत्र के बीच एक मोटी सी लाइन खिंची दिखायी दे रही थी .जो दो बराबर भाग मेँ ताशकंद व काकेकश के करीब दो भागों मे बंटी थी .जहां बँटी स्थिति पर एक पर्वत व एक कछुआ बना हुआ था .दसलोफीन इस नक्शे को देखते देखते -"ऐहह ममतर.....?" मत्स्यावतार युग के शुरुआत मेँ एक आकाशीय पिण्ड साइरियस अर्थात लुन्धक से एक मत्स्यमानव भूमध्य सागर मेँ उतरा था.फिर ....!?ये साइरियस ....?!कूर्म .....?!साईबेरिया के कभी राजा थे -कुरु.जो अग्नीन्ध्र के पुत्र व प्रियव्रत के पौत्र थे .रोम ,साइबेरिया,कुमायूँ,आदि मेँ बोली जाने वाली आदिभाषाओं की मूलभाषा प्रियव्रत के कबीले की भाषा थी.सुना जाता है प्रियव्रत ने रोम की स्थापना की थी.उत्तराखण्ड का एक नाम कूर्मांचल भी मिलता है.सन2011के14नवम्बर को प्रख्यात पैरानामिल लेखक माइकल कोहान ने साइबेरिया क्षेत्र मेँ एलियन्स गतिविधियों का होना स्वीकारा.इर्कुत्सक मेँ एलियन यान उतरने की घटनाएं होती .
दक्षिण भारत महत्वपूर्ण तो होगा लेकिन सूक्ष्म शक्तियां कूर्म क्षेत्र अर्थात हिमालय,साइबेरिया आदि से भी महत्वपूर्ण होगी। कोरो शक्ति व कोरो-ना शक्ति के बीच महा संघर्ष होगा।आत्मा के अलावा कोरो क्या?लेकिन उस को नजरअंदाज कब तक करेगा मनुज? कुदरत उसी के माध्यम से सफाई करेगी!!एक डेढ़ प्रतिशत मौन के सागर में डूब विष पीने का काम करेंगे।उनसे ही सब थमेगा।सनातन है आत्मा, आत्मा से जुड़ व्यवहार स्वीकार करना होगा।
2011से 2025 ई0 के बीच का समय कोरो अर्थात सहज के लिए बेहतर तो होगा लेकिन जब 98 प्रतिशत कोरो-ना अर्थात असहजता तो दिखेगा वह ही।खेल असल और होगा...
 कोई फाइनल खेल नहीं.... सनातन तो निरन्तर है...वहां विकास नहीं वरन विकासशीलता....

कुछ वर्ष तक लेनिन को साइबेरिया में एक स्थान पर नजरबन्ध  रखा गया।
दिल्ली में नेहरू के प्रधानमंत्री बनने के बाद  सुभाष बाबू भी साइबेरिया में नजरबंद रहे।
इस साइबेरिया में--
उत्तरी ध्रुव अब इधर ही आ रहा है।
शाहजहाँपुर में बाबूजी का तो कहना है-ध्रुव अपने स्थान से खिसकेगा। विनाश उत्तर से ही चलेगा।
उधर-
कैलाश पर्वत!

ये तिकोना आकार प्राकृतिक पहाड़ नहीं वरन एक पिरामिड है जिस पर बर्फ जमी रहती है-रूसी वैज्ञानिकों की एक टीम(1999)
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कैलाश पर्वत पर आज तक कोई क्यों नहीं चढ़ पाया है?
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हिंदू धर्म में कैलाश पर्वत का बहुत महत्व है, क्योंकि यह भगवान शिव का निवास स्थान माना जाता है। लेकिन इसमें सोचने वाली बात ये है कि दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट को अभी तक 7000 से ज्यादा लोग फतह कर चुके हैं, जिसकी ऊंचाई 8848 मीटर है, लेकिन कैलाश पर्वत पर आज तक कोई नहीं चढ़ पाया, जबकि इसकी ऊंचाई एवरेस्ट से लगभग 2000 मीटर कम यानी 6638 मीटर है। यह अब तक रहस्य ही बना हुआ है।
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मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, एक पर्वतारोही ने अपनी किताब में लिखा था कि उसने कैलाश पर्वत पर चढ़ने की कोशिश की थी, लेकिन इस पर्वत पर रहना असंभव था, क्योंकि वहां शरीर के बाल और नाखून तेजी से बढ़ने लगते हैं। इसके अलावा कैलाश पर्वत बहुत ही ज्यादा रेडियोएक्टिव भी है।
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कैलाश पर्वत पर कभी किसी के नहीं चढ़ पाने के पीछे कई कहानियां प्रचलित हैं। कुछ लोगों का मानना है कि कैलाश पर्वत पर शिव जी निवास करते हैं और इसीलिए कोई जीवित इंसान वहां ऊपर नहीं पहुंच सकता। मरने के बाद या वह जिसने कभी कोई पाप न किया हो, केवल वही कैलाश फतह कर सकता है।


ऐसा भी माना जाता है कि कैलाश पर्वत पर थोड़ा सा ऊपर चढ़ते ही व्यक्ति दिशाहीन हो जाता है। चूंकि बिना दिशा के चढ़ाई करना मतलब मौत को दावत देना है, इसीलिए कोई भी इंसान आज तक कैलाश पर्वत पर नहीं चढ़ पाया।
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सन 1999 में रूस के वैज्ञानिकों की टीम एक महीने तक माउंट कैलाश के नीचे रही और इसके आकार के बारे में शोध करती रही। वैज्ञानिकों ने कहा कि इस पहाड़ की तिकोने आकार की चोटी प्राकृतिक नहीं, बल्कि एक पिरामिड है जो बर्फ से ढका रहता है। माउंट कैलाश को "शिव पिरामिड" के नाम से भी जाना जाता है।
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जो भी इस पहाड़ को चढ़ने निकला, या तो मारा गया, या बिना चढ़े वापिस लौट आया।
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सन 2007 में रूसी पर्वतारोही सर्गे सिस्टिकोव ने अपनी टीम के साथ माउंट कैलाश पर चढ़ने की कोशिश की। सर्गे ने अपना खुद का अनुभव बताते हुए कहा : 'कुछ दूर चढ़ने पर मेरी और पूरी टीम के सिर में भयंकर दर्द होने लगा। फिर हमारे पैरों ने जवाब दे दिया। मेरे जबड़े की मांसपेशियाँ खिंचने लगी, और जीभ जम गयी। मुँह से आवाज़ निकलना बंद हो गयी। चढ़ते हुए मुझे महसूस हुआ कि मैं इस पर्वत पर चढ़ने लायक नहीं हूँ। मैं फ़ौरन मुड़ कर उतरने लगा, तब जाकर मुझे आराम मिला।
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"कर्नल विल्सन ने भी कैलाश चढ़ने की कोशिश की थी। बताते हैं : "जैसे ही मुझे शिखर तक पहुँचने का थोड़ा-बहुत रास्ता दिखता, कि बर्फ़बारी शुरू हो जाती। और हर बार मुझे बेस कैम्प लौटना पड़ता। "चीनी सरकार ने फिर कुछ पर्वतारोहियों को कैलाश पर चढ़ने को कहा। मगर इस बार पूरी दुनिया ने चीन की इन हरकतों का इतना विरोध किया कि हार कर चीनी सरकार को इस पहाड़ पर चढ़ने से रोक लगानी पड़ी।कहते हैं जो भी इस पहाड़ पर चढ़ने की कोशिश करता है, वो आगे नहीं चढ़ पाता, उसका हृदय परिवर्तन हो जाता है।यहाँ की हवा में कुछ अलग बात है। आपके बाल और नाखून 2 दिन में ही इतने बढ़ जाते हैं, जितने 2 हफ्ते में बढ़ने चाहिए। शरीर मुरझाने लगता है। चेहरे पर बुढ़ापा दिखने लगता है।कैलाश पर चढ़ना कोई खेल नहीं

29,000 फ़ीट ऊँचा होने के बाद भी एवरेस्ट पर चढ़ना तकनीकी रूप से आसान है। मगर कैलाश पर्वत पर चढ़ने का कोई रास्ता नहीं है। चारों ओर खड़ी चट्टानों और हिमखंडों से बने कैलाश पर्वत तक पहुँचने का कोई रास्ता ही नहीं है। ऐसी मुश्किल चट्टानें चढ़ने में बड़े-से-बड़ा पर्वतारोही भी घुटने तक दे।हर साल लाखों लोग कैलाश पर्वत के चारों ओर परिक्रमा लगाने आते हैं। रास्ते में मानसरोवर झील के दर्शन भी करते हैं।लेकिन एक बात आज तक रहस्य बनी हुई है। अगर ये पहाड़ इतना जाना जाता है तो आज तक इस पर कोई चढ़ाई क्यों नहीं कर पाया।


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मेरें Nokia फ़ोन से भेजा गया

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