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बुधवार, 11 मई 2011

: कतरा कतरा मरता हूँ हर रोज!

कतरा कतरा मरता हूँ हर रोज ,


बूंद बूंद जहर दिया इन अपनों से न मौज.


कहते हैं सुख दुख सोंचने का ढंग है


इस बात से संवारते थे खुद को हर रोज.

कौन है अपना ऐसा ,समझे अपने हाल को जो


अपनों की भीड़ बीच ,हर रोज मेरी मौत.

कहें सब अपनी अपनी,रंग न पाये बात कोई

इन अपनों के मरहम,घावों को बढ़ायें हर रोज.


भीड़ से हट एकान्त ने ही दिया मरहम


खून के आंसू पीकर रह जाएं ,भीड़ के मौज.


एकान्त के प्रभुस्मरण से ही पायें सुकून

भीड़ की संत्वना में
कहां मरहम,भीड़ में न पाया मौज.

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